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शांत रहो , क्रोध मत करो

बुद्ध पेट भरने के लिए भोजन इकट्ठा करने के लिए भिक्षा का कटोरा लेकर बाहर जाते थे। एक बार बुद्ध किसी महिला के घऱ पहुँचे और भिक्षा के लिए आवाज देने लगे ,घर की महिला कुछ पका हुआ भोजन लेकर बाहर आती और बुद्ध को भोजन अर्पित करती। बुद्ध इसे स्वीकार कर लेते, महिला को धन्यवाद देते और चले जाते।

एक दिन, बुद्ध एक ऐसे गाँव से गुज़र रहे थे जहाँ वे पहले कभी नहीं गए थे। उसने एक घर का दरवाज़ा खटखटाया। उस घर की महिला बहुत कटु स्वभाव की थी. वह अपने दरवाजे पर भिक्षापात्र लिए एक साधु को खड़ा देखकर क्रोधित हो गई।

वह उसे गालियां देने लगी. “वह बोली महात्मा आप बिना मेहनत किए खाना खाना चाहते हैं,” वह चिल्लाई। बुद्ध बिना उत्तर दिये खड़े रहे।

“आप काफी तंदुरुस्त दिखते हैं, तुम कुछ काम क्यों नहीं करते, वह बुद्ध को देख कर बोली ।

वह महिला बुद्ध को गालियाँ देती रही, उन्हें बुरा-भला कहती रही। बुद्ध बिना किसी प्रतिक्रिया के सुनते रहे, वह उसकी बात ख़त्म होने का इंतज़ार करते रहे

आख़िरकार वह थोडी देर के लिए रुकी और बोली, “तुम पत्थर की तरह क्यों खड़े हो? भिक्षु, कुछ क्यों नहीं कहते?” उसने ताना मारा.

“माँ, अगर प्रसाद चढ़ाया गया . मगर उसे किसी ने स्वीकार नहीं किया तो वह किसका होगी” बुद्ध ने पूछा.

महिला ने अधीरता से कहा, “मैंने तुम्हे कुछ नही दिया, आलसी साधु।”

बुद्ध ने धीरे से कहा, “माँ, जब से मैं आपके द्वार पर आया हूँ, आप अपने पास जो कुछ भी है वह मुझे दे रही हैं।”

महिला बुद्धिमान थी. वह तुरंत समझ गई कि भिक्षु उस महिला द्वारा किए गए दुर्व्यवहारों का जिक्र कर रहा है ।
वह महिला अपने दुर्व्यवहारों से शर्मिदा और बुद्ध से क्षमा माँगी।

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