यदि तुम मुझसे राजी होते हो, या तुम मुझसे राजी नहीं होते, तुम्हारा जीवन बदलेगा नहीं। यह राजी होने या न होने का प्रश्न नहीं है, यह प्रश्न है समझ का और समझ राजी होने न होने दोनों के पार है। साधारणतः जब तुम मुझसे राजी होते हो, तुम सोचते हो कि तुमने मुझे समझ लिया। यदि तुमने मुझे समझ ही लिया तो राजी होने न होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा। कैसे तुम सत्य के साथ राजी हो सकते हो ? या राजी नहीं हो सकते हो ? सूरज उगा है- -क्या तुम राजी होते हो या राजी नहीं होते ? तुम कहोगे कि यह प्रश्न ही असंगत है।
तुम्हारा राजी होना, न होना सिद्धांतों के विषय में है, सत्य के विषय में नहीं। इसलिए जब तुम मुझसे राजी होते हो तुम वस्तुतः मुझसे राजी नहीं होते, तुम यह महसूस करने लग जाते ह कि मैं तुम्हारे सिद्धांत से, जिसे तुम सदा अपने साथ लिए फिरते हो, राजी हूं। जब कभी भी तुम्हें लगता है कि ओशो तुमसे राजी है, यह महसूस करने लग जाते हो कि तुम ओशो से राजी हो । जब कभी भी मैं तुमसे राजी नहीं होता, समस्या उठ खड़ी होती है, तब तुम मुझसे राजी नही होते। या फिर तुम उस पर कान ही नहीं देते, तुम उसे सुनते ही नहीं। जब मैं कोई ऐसी बात कह रहा होता हूं जो तुमसे मेल नहीं खाती, तुम बस अपने को बंद कर लेते हो।
राजी होने न होने का प्रश्न ही नहीं है। इसे छोड़ो ! मैं यहां धर्म परिवर्तकों की तलाश में नहीं हूं, मैं कोई दर्शन प्रतिपादित नहीं कर रहा हूं, मैं कोई अध्यात्मवाद प्रस्तुत नहीं कर रहा हूं; मैं अनुयायी नहीं खोज रहा हूं। मैं शिष्य
खोज रहा हूं – – और यह एक बिलकुल दूसरी ही बात है, एक पूर्णतः भिन्न बात । शिष्य वह नहीं राजी होता है, शिष्य वह है जो सुनता है, जो सीखता है। शिष्य शब्द सीखने से नहीं, अनुशासन से आता है।
शिष्य वह है जो सीखने के प्रति खुला है। अनुयायी बंद होता है। अनुयायी सोचता है कि वह तो राजी हो ही चुका है; अब कुछ नहीं। बचा है और नहीं अब खुले रहने की आवश्यकता है — वह बंद हो सकता है, वह बंद होना सहन कर सकता है। शिष्य के लिए। बंद हो जाना संभव नहीं, अभी तो बहुत कुछ सिखाने को बाकी है। कैसे तुम राजी या न राजी हो सकते हो ? और शिष्य के पास अहंकार ही नहीं होता, अतः कौन राजी होगा और कौन राजी नहीं होगा। शिष्य तो मात्र एक अनकाश है – वहां राजी होने या न होने के लिए कोई भीतर है ही नहीं । तुम्हारा राजी हो जाना ही तो कठिनाई निर्मित कर रहा है।
और राजीपन से कभी कोई रूपांतरित नहीं होता । राजीपन तो बहुत सतही, बहत बौद्धिक बात है। रूपांतरण के लिए तो आवश्यकता होती है समझ की । यह सदा समझ ही है जो बदलती है, रूपांतरित करती है। और जब तुम समझ जाते हो, तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता – समझ ही काम करना प्रारंभ कर देती है। ऐसा नहीं कि पहले तुम समझते हो, फिर तुम अभ्यास करते हो न ! यह समझ ही, समझ का यह तथ्य ही तुम्हारे हृदय में गहरा जाता है। वहीं पैठ जाता है, और रूपांतरण घटित हो जाता है। रूपांतरण तो समझ का परिणाम है। यदि तुम राजी होते हो, तब समस्या उठ खड़ी होती है: अब क्या किया जाए? मैं राजी तो हो गया हूं, अब तो कुछ अभ्यास किया जाना चाहिए। और फिर मन बहुत चालाक है। तुम कभी नहीं जानते कि राजी होने से तुम्हारा क्या तात्पर्य है…।