उम्मीद की नाव करा सकती है समुद्र भी भार

उम्मीद की नाव समुद्र करा सकती है पार

छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात रखना एक चाहती हूँ।
अस्ताचल रहे सूर्य ने एक दिन पूछा- ‘मैं जाऊंगा तो पृथ्वी पर अंधेरा छा जाएगा। मेरी अनुपस्थिति में इस अंधेरे से कौन लड़ेगा? कौन इस पृथ्वी को उजियारा देगा ?’ सबने एक के बाद एक कहा- ‘ऐसी स्थिति में कोई भी उजाला देने में सक्षम नहीं है, ऐसा संभव नहीं है।’ तभी एक नन्हा सा दीपक अपनी टिमटिमाती आंखों को स्थिर कर बोला- ‘मैं पूरी सृष्टि को तो प्रकाश नहीं दे सकता लेकिन एक घर में उजियारा करने की जिम्मेदारी लेता हूं।’ यही उम्मीद – श्रद्धा और आत्मविश्वास कहलाता है।

एक व्यक्ति क्या कर सकता है? उसके बारे में उसे खुद ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी होती है। हम सभी
यह मान बैठते हैं कि हमारे बदले हमारी जिम्मेदारी कोई दूसरा उठाएगा। ऐसा होता नहीं है और संभव भी नहीं। इतना ही नहीं कुछ गलत हो जाए तो उसका दोष दूसरे के सिर मढ़ने और अच्छे काम का श्रेय लेने की हमारी प्रवृत्ति हो गई है। गणना का ये हिसाब-किताब उचित नहीं है। अच्छे खराब दोनों की जिम्मेदारी जब हम खुद लेते हैं तभी भविष्य की ओर देखने का सामर्थ्य पा सकते हैं। हर व्यक्ति जीवन में छोटी-बड़ी गलतियां- भूल करता ही है। कहीं फैसला लेने तो, कहीं पहल करने में, लेकिन इन गलत निर्णय और परिस्थितियों की ओर पीछे मुड़-मुड़ कर देखते रहना उचित नहीं है।

अभी भारी संकट का समय चल रहा है। लगभग हर परिवार आर्थिक, मानसिक और व्यक्तिगत सेहत संबंधी समस्याओं से गुजर रहा है, जूझ रहा है। आर्थिक हालात हर जगह प्रतिकूल हैं। ऐसे में भी हमें आने वाले वक्त की ओर देखना चाहिए। छोटी-बड़ी बचत वाले लोग संभव है थोड़ी आसानी में हों लेकिन चिंता उन्हें भी सता रही है कि बचत खत्म होने पर क्या होगा ? ‘कल’ शब्द का प्रयोग आने वाले दिन और बीत चुके- दोनों ही दिनों के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है। हर व्यक्ति ही तय करता है कि वह किस ‘कल’ को लेकर चिंतन-मनन में है। हममें अधिकांश लोग, बीत चुके वक्त में जिन परेशानियों- कठिनाइयों से गुजरे, उन्हें याद कर ज्यादा से ज्यादा पीड़ा भोगते हैं।

जहां तक समझ-विचार पाती हूं, उससे यही सीख पाती हूं कि व्यक्ति को सामंजस्य संतुलन बिठाना
सीखना ही पड़ता है। सामंजस्य संतुलन साधने की ये योग्यता ही जीवन जीने की आशा मतलब उम्मीद है।
जो लोग खुद में कुछ भी बदलने- बदलाव के लिए तैयार नहीं होते वे नए हालात – चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते। जो खुद को, अपने विचारों को, अपनी जरूरत और जीवनशैली को बदल सकते हैं वे समय के साथ बदलने की उम्मीद रख सकते हैं।
हम सब अभी हताशा – निराशा के एक ऐसे वक्त में खड़े हैं, जो मनुष्य जाति ने पिछली कई सदियों से नहीं देखा। ये सच है कि हर दिन मौत की खबरें, कोरोना संक्रमित मरीजों के द्रुतगति से बढ़ते आंकड़े
ऐसा कभी नहीं हुआ कि सूर्य अस्त होने के बाद कभी उगा न हो । संकट में एक दूसरे की मदद करें, उम्मीद जगाएं बढ़ाएं। जल्द ही वक्त सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य की सौगात ती सुबह के साथ उपस्थित होगा ।

हमें डराते हैं। इनके साथ कोरोना को हरा कर जीवन डोर लंबी कर उम्मीद बंधाने वाले आंकड़े भी हैं। कोरोना संक्रमण फैलाव के लिए क्या हम अन्य किसी को दोष दे सकते हैं? एक व्यक्ति के रूप में मनुष्य को खुद की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और यदि विश्व का हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाए तो उससे बड़ी उम्मीद, आशा और श्रद्धा कुछ नहीं हो सकती।
जगत में कोई भी एक घंटा 60 मिनट से ज्यादा लंबा नहीं होता। ऐसा कभी नहीं हुआ कि सूर्य अस्त होने के बाद कभी उगा न हो। आन पड़े संकट के मौजूदा वक्त में हम सभी एक दूसरे की यथासंभव मदद करें, जितना संभव हो लोगों को हिम्मत दें, सहायता करें और उम्मीद जगाएं बढ़ाएं। स्वयं का पूरा ख्याल रखें तो बहुत संभव है कि जल्द ही आने वाला वक्त हम सबके लिए पुनः सुख-शांति समृद्धि और बेहतर स्वास्थ्य की सौगात देती सुनहरी सुबह के साथ उपस्थित होगा ।
मुझे उम्मीद है… आशा है… और पूरी आस्था है कि ऐसा ही होगा.. आपको है?

साभार- लेखिका स्वरूप संपत

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